अध्याय ३ ब्राह्मण ७ ३५३ अन्वय-पदार्थ। या-जो । चक्षुपि-नेन में । तिष्टन-स्थित है । + यः जो। चक्षुप: नेत्र के । अन्तरसम्वाहर है। यम्-जिसको । चक्षुः= नेत्र । नन्नहीं । वेद-जानता है । यस्य-जिसका । शरीरम् शरीर । चक्षु: नेत्र है। य:ो । अन्तर:-नेन में रह कर । चक्षुः नेत्र को। यमयति-नियमबद्ध करता है । एपः वही । ने-तेरा । अमृतःविनाशी। आत्मा-धारमा । अन्तर्यामी- सन्तयांमी है। भावार्थ। जो चनु के अन्तर स्थित है, जो चक्षु के बाहर स्थित है, जिसको चक्षु नहीं जानता है, जो चक्षु को जानता है, जिसका शरीर चक्षु है, जो चन के भीतर बाहर रह कर उसको शासन करता है, जो आपका आत्मा है, जो अवि- नाशी है, यही वह अन्तर्यामी है ॥१०॥ मन्त्रः १६ यः श्रोत्रे तिष्ठञ्छोवादन्तरो यछ श्रोत्रं न वेद यस्य श्रोत्र शरीरं यः श्रोत्रमन्तरो यमयत्येप त श्रात्मान्त- याम्यमृतः ॥ पदच्छेदः। यः, श्रोत्रं, तिष्ठन्, श्रोत्रात्, अन्तरः, यम्, श्रोत्रम्, न, बंद, यस्य, श्रोत्रम्, शरीरम्, यः, श्रोत्रम्, अन्तरः, यमयति, एपः, ते, आत्मा, अन्तर्यामी, अमृतः ।। अन्वय-पदार्थ । यो । श्रोत्र कर्ण में । तिष्ठन्:स्थित है। + याजो। २३
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