३६२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० धनुम् पर प्रत्यञ्चा चढ़ा करके शत्रु के हनन के लिये उपस्थित होवें वैसेही मैंथापके सामने अापके पराजय के निमित्त दो प्रश्नों को लेकर उपस्थित हूं. आप उन दोनों प्रश्नों के उत्तर को मेरे लिये कहिये, ऐसा सुन कर याज्ञवल्क्य ने कहा हे गार्गि ! तुम उन प्रश्नों को प्रसन्नतापूर्वक मुझ से पूछो, इसके उत्तर में गार्गी कहती हैं, श्राप घबड़ाइये नहीं, मैं अवश्य पूछंगी ॥ २ ॥ मन्त्रः ३ सा होवाच यचं याज्ञवल्क्य दिवो यदवाक् पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे यद्भुतं च भवन भविप्यचेत्याचक्षते कस्मिस्तदोतं च प्रोतं चेति ॥ पदच्छेदः। सा, इ, उवाच, यत्, ऊर्ध्वम्, याज्ञवल्क्य, दिवः, यत्, अवाक्, पृथिव्याः, यत्, अन्तरा, घावापृथिवी, इम, यत्, भूतम्, च, भवत्, च, भविष्यत् , च, इति, थाचक्षते, कस्मिन् , तत्, भोतम् , च, प्रोतम् , च, इति ।। अन्वय-पदार्थ । सा-वह गार्गी । हस्पष्ट । उवाच-पूलती भई कि । याज्ञवल्क्यन्हे याज्ञवल्क्य ! । यत् जो। दियःम्युलोक के । ऊर्ध्वम् ऊपर है । यत् जो । पृथिव्याः-पृथ्वीलोक के । अवाक्-नीचे है । यदन्तरा जिसके बीच में। इमेये । धावा- पृथिवी-द्युलोक और पृथिवी लोक हैं । यत्-जिसको । + पुरुपा-पुरुप । भूतम् भूत । च-और । भवत्-वर्तमान ।
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