बृहदारण्यकोपनिषद् स० है। यत्-जो। पृथिंब्या-पृथ्वीलोक में । अयाक-नीचे है। यदन्तराजिसके बीच में । इम=ये । द्यावापृथिवी-पुलोक और पृथ्वी लोक स्थित है। चौर । यत्-जिमको । पुरुपा:- पुरुप । भृतम् भूत । भवत्-वर्णमान । चम्धौर । भविष्यत- भविष्यत् । पाचक्षते कहते हैं । तत्वष्ठ मय । कस्मिन्- किसमें । श्रोतम्-श्रोत । च-और प्रोतम्-प्रोत है। यानी किम में अथित है । इति इस प्रकार गार्गी का प्रश्न हुथा । भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज की श्राज्ञा पा करके गार्गी बोली कि, हे याज्ञवल्क्य ! जो दिवलोक के ऊपर हैं, जो पृथ्वीलोक के नीचे है, और जो दिवलोक और पृथ्वीलाक के मध्य में है, और जिसको विद्वान् लोग भूत, वर्तमान, भविष्यत् नाम से कहते हैं, यह सब किसमें श्रीत प्रांत है यानी किसमें प्रथित है, इस प्रकार गार्गी का प्रश्न दृश्या ॥ ६ ॥ 1 मन्त्रः स होवाच य_ गार्गि दिवो यदवाक् पृथिव्या यदन्तरा द्यावापृथिवी इमे यद्भूतं च भवच भविष्यच्चे- त्याचक्षत आकाश एव तदोतं च प्रोतं चेति कस्मिन्नु खल्वाकाश श्रोतश्च प्रोतश्चेति ॥ पदच्छेदः। सः, ह, उवाच, यत्, ऊर्ध्वम्, गार्गि, दिवः, यत्, 'अवाक्, पृथिव्याः, यदन्तरा, यावापृथिवी, इमे, यत्, भूतम्, च, भवत् , 'च, भविष्यत्, च, इति, आचक्षते, आकाशे, 1 -
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