पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३८३

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अध्याय ३ ब्राह्मण ८ 1 रहित है। अमात्रम्-परिमाणरहित है। अनन्तरम् अन्तररहित है। प्रवाहम् बाह्य रहित है । न-न | तत्-वह । किंचन कुछ। अश्नाति-खाता है। च-शोर । नन । कश्चन-कोई पदार्थ । तत्-उसको । अश्नाति-पाता है । गार्गि=हे गागिं ! । इति इस प्रकार । ब्राह्मणा:-ब्रह्मवेत्ता । अभिवदन्ति कहते हैं । भावार्थ । याज्ञवल्क्य बोले हे गानि ! जिसमें सव ओत प्रोत हैं वह अविनाशी है, वह न स्थूल है, न सूक्ष्म है, न छोटा है. न बड़ा है, न यह लाल है, न वह संसारी जीव की तरह पर स्नेहवाला है, वह आवरणरहित है, तमरहित है, वायुरहित है, स्वादरहित है, गन्धरहित है, नेत्ररहित है, श्रोत्ररहित है, वाणीरहित है, मनरहित है, तेजरहित है, प्राणरहित है, मुखरहित है, परिमाणरहित है, अन्तररहित है, वाह्यरहित है, न वह कुछ खाता है, न उसको कोई खाता है, हे गार्गि ! जिसमें श्राकाश भी ओत प्रोत है, उसको ब्रह्मवेत्ता इस प्रकार कहते हैं ॥८॥ - . J मन्त्र: 8 एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि सूर्याचन्द्रमसौ विधृतौ तिष्टत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशासने गार्गि यावापृथिव्यौ विधूने तिष्ठत एतस्य वा अक्षरस्य प्रशा- सने गार्गि निमेपा मुहर्ता अहोरात्राएयर्धमासा मासा ऋतबः संवत्सरा इति विधृतास्तिष्ठन्त्येतस्य वा अक्ष- रस्य प्रशासने गार्गिमाच्योऽन्या नद्यः स्यन्दन्ते श्वेतेभ्यः २४