३७४ बृहदारण्यकोपनिपद् स० अस्ति, पदच्छेदः। तत, वा, एतत् , अक्षरम् , गार्गि, अदृष्टम् ,, द्रष्ट, अश्रुतम् , श्रोत, अमतम् , मन्त, अविज्ञातम् , विज्ञात, न, अन्यत् , अतः, अस्ति, द्रष्ट्र, न, अन्यत् , अतः, श्रोत, न, अन्यत्, अतः, अस्ति, मन्त, न, अन्यत्, अतः, अस्ति, विज्ञात. एतस्मिन् , नु, खलु, अक्षरे, गार्गि, आकाशः, प्रोतः, च, प्रोतः, च, इति ॥ अन्वय-पदार्थ। गार्गि-हे गार्गि !। तत् वैवही । एतत्-यह । अक्षरम्- अक्षर । अष्टम् अदृष्ट होते हुए । द्रष्टु-दृष्टा है। अश्रुतम्- अभ्रत होते हुए भी। श्रोतृ-श्रोता है । अमतम्-मनन इन्द्रिय का अविषय होते हुये भी । मन्तृ-मनन करनेवाला है। अविज्ञातम्-थविज्ञात होते हुये भी । विज्ञात जाननेवाला है। अंतः इससे पृथक् । अन्यत्-धौर कोई दूसरा। द्रष्ट-देखनेवाला। नन्नहीं । अस्ति है। अतः इससे पृथक् । अन्यत्-दुसरा कोई । विज्ञातृ-जाननेवाला । न-नहीं । अस्ति है। पतस्मिन्-इसी । अक्षरे-अक्षर में । नु खलु-निश्चय करके । गार्गि हे गार्गि ! आकाशः-आकाश । ओतप्रोत । च-और। प्रोतः च- प्रोत है। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज फिर बोले, हे गार्गि ! वही यह अक्षर अदृष्ट होते हुये भी द्रष्टा है, अर्थात् इस अक्षर को किसी ने नेत्र से नहीं देखा है, क्योंकि वह दृष्टि का अविषय है, परंतु वह स्वयं सब का द्रष्टा है, यानी देखनेवाला है, यही अक्षर अश्रुत होता हुआ भी श्रोता है, यानी वह किसी के श्रोत्र
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