पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/३८७

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अध्याय ३ ब्राह्मण ८ ! कर्म । अन्तवत्-नाश । एवम्यवश्य । भवति होता है। गार्गि-हे गार्गि! यः-जो । एतत् इस । अक्षरम् अक्षर को । अविदित्वा-न जान कर । अस्मात्-इस । लोकात्-लोक से । प्रैति-मर कर जाता है। साम्वह। कृपणः कृपण होता है अथ और । यःजो । गार्गिन्हे गार्गि!। एतत्-इस । अक्षरम्= थक्षर को । विदित्वा-जान कर । अस्मात् इस । लोकात्- लोक से । प्रति जाता है । सः वह । नाहरण:-ब्राह्मण । + भवति होता है। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज फिर कहते हैं, हे गार्गि ! सुनो, जो पुरुप इस अक्षर को न जानकर इस लोक में होम या यज्ञादि करता है या पूजा करता है या सहस्रों वर्ष तक तप करता है उसका वह सब कर्म निष्फल होता है, और हे गार्गि ! जो पुरुष इस अक्षर को न जानकर इस लोक से मर कर चला जाता है वह जब फिर संसार में उत्पन्न होता है, तो बड़ा कृपण दरिद्र होता है, पर हे गार्गि ! जो इस अक्षर को जानकर इस लोक से प्रयाण करता है वह ब्राह्मण होता है यानी ब्रह्म के तुल्य होजाता है ॥ १०॥ मन्त्रः ११ तद्वा एतदक्षरं गार्ग्यदृष्टं द्रष्ट्रश्रुत श्रोत्रमतं मन्त्र- विज्ञातं विज्ञात नान्यदतोस्ति द्रष्ट नान्यदतोस्ति श्रोत नान्यदतोस्ति मन्तु नान्यदतोस्ति विज्ञात्रेतस्मिनु खल्वक्षरे गायाकाश श्रोतश्च प्रोतश्चेति ॥