पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४

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अन्तःकरण-प्रविष्ट परमात्मा की प्रेरणा होगी और में जीता रहूंगा और अवकाश मिलेगा तो प्रयत्न करूंगा: जब मैं हरिद्वार से वापस आया तत्र पण्डित गंगाधर शास्त्री और अंग्रेजी में अनुवाद किये हुये ग्रंथों की सहायता करके बृहदारण्य की टीका का प्रारम्भ किया गया, और ईश्वर की कृपा करके आज उसकी निर्विन्न समाप्ति हुई ।

मेरा धन्यवाद प्रथम पण्डित सूर्यदीन शुक्ल नवलकिशोर प्रेस को है जो इस उपनिपद् के छपाने के लिये मेरे उत्साह को बढ़ाते रहे, उनके पुरुषार्थ और प्रयत्न करके यह उपनिपद् विद्वानों के अवलोकनार्थ छपकर तैयार है, पण्डित शक्तिधर शर्मा शुक्ल और पण्डित खूबचन्द शर्मा गौड़ ने इस उपनिपद् का संशोधन किया है, मैं उनके इस अनुग्रह पर उनको भी धन्यवाद देता हूं।

हे पाठकजनो ! शंकराचार्यजी ने उपनिषद् का अर्थ इस प्रकार किया है, उप+नि+पद् उप-समीप, नि-अत्यन्त, पद्नाश, अतः संपूर्ण उपनिपद् शब्द का अर्थ यह हुश्रा कि जो जिज्ञासु श्रद्धा और भक्ति के साथ उपनिषदों के अत्यन्त समीप जाता है, यानी उनका विचार करता है वह आवागमन के क्लेशों से निवृत्त हो जाता है, और किसी किसी आचार्य ने इसका अर्थ ऐसा भी किया है, उप-समीप, नि-अत्यन्त, पद् बैठना, यानी जो जिज्ञासु को अध्ययन