पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५

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अध्यापन के द्वारा ब्रह्म के अति समीप बैठने के योग्य बना देता है वह उपनिषद् कहा जाता है । हे पाठकजनो ! जैसे छान्दोग्यउपनिषद् के दो खण्ड हैं पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध, वैसेही इस बृहदारण्य के भी दो खण्ड हैं, पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध । पूर्वार्द्ध में निष्काम कर्म यागादि का निरूपण है, और उत्तरार्द्ध में आत्मज्ञान का निरूपण है, जो मुमुनु आवागमन से रहित होना चाहता है, उसको चाहिये कि वह प्रथम निष्काम कर्म करके अन्तःकरण को शुद्ध करे, और फिर श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ आचार्य के समीप शिष्य- भाव से जाकर श्रद्धा और भक्ति के साथ सेवा करके प्रसन्न करे, पश्चात् अपनी इच्छानुसार प्रश्नों को करे और कहे हुये उपदेश को श्रवण मनन करके अपने आत्मा का साक्षात् करे। जहां तक हो सका है हर एक संस्कृतपद का अर्ध विभक्ति के.अनुसार लिखा गया है, इस टीका के पढ़ने से संस्कृतविद्या की उन्नति उनको होगी जिनको संस्कृत की योग्यता न्यून है, मन्त्र का पूरा पूरा अर्थ उसी के शब्दों से ही सिद्ध किया गया है, अपनी कोई कल्पना नहीं की गई है, हां कहीं कहीं संस्कृतपद मन्त्र के अर्थ स्पष्ट करने के लिये ऊपर से लिखा गया है, और उसके प्रथम यह + चिह्न लगा दिया गया है ताकि पाठकजनों को विदित हो जावे कि यह पद . मूल का नहीं है।