पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४०३

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अध्याय ३ ब्राह्मण ३८६ एक लोक पृथ्वी है, उसमें अग्नि देवता रहता है, दूसरा लोक अन्तरिक्ष है, उसमें वायुदबता रहता है, तीसरा लोक धुलोक है, उममें आदित्य देवता रहता है. यानी इन्हीं तीनों देवताओं में मत्र का अन्तर्भाव होता है, पहिले आठ देवताओं को छः देवताओं में अन्नभाव विया, फिर उन छहों को तीन में अन्न व किया. फिर विदग्ध पूरत है, हे याज्ञवल्क्य! वे दोनों देवता कौर कोन हैं, जिम को आप पहिले कह आये हैं, याज्ञवल्क्य कहत हैं उन दोनों में से एक देवता प्राण है, दूसरा अन्न है, यहां पर प्राण शब्द से नित्य पदार्थ का ग्रहण है, और अन्न से अनित्य पदार्थ का ग्रहण है, अथवा पहिला कारणरूप है, दू"रा कार्यरूप है, इन्हीं दोनों में सब प्रांत-प्रोत हैं, इसके पश्चात् विदग्ध पूछते है याज्ञवल्क्य ! अध्यर्द्ध कौन है. य ज्ञवल्क्य उत्तर देते हैं जो बहता है वह अध्यर्द्ध है, ह विदग्ध ! वायु को अध्यर्द्ध कहते हैं || -॥ मन्त्रः तदाहुर्यदयमेक इवैव पवतेऽथ कथमध्यर्द्ध इति यंद- स्मिन्निद सर्वमध्यानोचेनाध्यर्द्ध इति कतम एको देव इति प्राण इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते ॥ पदच्छेदः। तत् , आहुः, यत् . अयम् , एकः, इय, एव, पवते, अथ, १. अध्यानाति-प्राध+ऋद्धि अधि अधिक, ऋद्धि-वृद्धि, जी अधिक वृद्धि का करे, वह अध्यर्द्ध कहलाता है । २. त्यत् और दोनों शब्द एकही अर्थ के बोधक हैं। तत् ये