वृहदारण्यकोपनिपद् स० श्राश्रय है। चक्षुः नेत्र ही । लोकः रहने की जगह है। मनः मन ही । ज्योति:प्रकाश है। या जो । सर्वस्य-सब के। आत्मनः प्रात्मा का । परायणम्-उत्तम आश्रय है । तम् उस । पुरुपम्-पुरुप को। यःजो। वैनिश्चय के साथ । विद्यात् जानता है। साम्बह । याज्ञवल्क्य-हे याज्ञवल्क्य !। बेदिता-वेत्ता। स्यात् होता है। + इति श्रुत्वा ऐसा सुनकर । याज्ञवल्क्याच्याज्ञवल्क्य ने । उवाच-कहा । + शाकल्य हे विदग्ध ! । याजो । सर्वस्य-सव के । श्रात्मनः श्रात्मा का । परायणम्=परम धाश्रय है । च-ौर । यम्-जिसको । त्वम् तुम । सर्वस्य-सव । आत्मनः जीवों का । परायणम्=परम आश्रय । आस्थ-कहते हो। तम्-उस पुरुप को । अहम्-मैं । वेद-जानता हूं । असौ यही पुरुप । श्रादित्ये-सूर्य में है। सम्वही । एप यह । पुरुपः पुरुप । + अस्ति-है जो तुम्हारे विपे स्थित है। शाकल्य-हे शाकल्य! । वद एव-तुम पूछो उहरो मत । इति इम पर । + शाकल्यः-शाकल्य ने । + पप्रच्छ-पूछा । तस्य-उस पुरुप का । देवता-देवता यानी कारण । काकीन है । इति शाकल्य के इस प्रश्न पर । + याज्ञवल्क्याच्याज्ञवल्क्य ने । इति-ऐसा । हस्पष्ट । उवाच कहा कि । तत्-वह । सत्यम् ब्रह्म है। भावार्थ। विदग्ध फिर प्रश्न करते हैं कि, हे याज्ञवल्क्य ! जिस पुरुष का रूप ही आश्रय है, नेत्रही रहने की जगह है, मनहीं प्रकाश है, जो सबके आत्मा का उत्तम आश्रय है, पुरुष को निश्चय के साथ जानता है, वह हे याज्ञवल्क्य ! सबका वेत्ता होता है, क्या आप उस पुरुष को जानते हैं ? -> जो उस
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