४०० बृहदारण्यकोपनिपद् स० अन्वय-पदार्थ । यस्य=जिस पुरुप का । आयतनम्म्याश्रय । तमातम । पव-ही है । हृदयम् हृदय । लोकारहने की जगह है । मनः मन । ज्योति प्रकाश है। + यःजो । सर्वस्य: सब के। आत्मनः प्रात्मा का । परायणम्-परम धाश्रय है । तम्-ठस । पुरुपम्-पुरुप को । यःजो। विद्यात्-ज्ञानता है। यान- वल्क्य हे याज्ञवल्क्य ! । सावह । बेदिता-सब का ज्ञाता । स्यात् होता है । + इति=ऐसा । + श्रुत्वा-सुनकर । +याज्ञवल्क्य: याज्ञवल्क्य ने । + पाह-कहा । यःजी। सर्वस्य-सव के । प्रात्मनः यात्मा का । परायणम्-परम माश्रय है। + च-और । यम्-जिसको । त्वम्-तुम । श्रात्य% पूछते हो । तम्-उस । पुरुषम् पुरुप को । वै=निस्सन्देह अहम् मैं । वेद-जानता हूं । अयम्=बह । एवम्ही । छाया। मयः प्रज्ञानसम्बन्धी पुरुप है । सम्वही । एप: यह तुम्हारा पुरुष है। शाकल्य-हे शाफल्य !। एच-अवश्य । वदम्पूछो। + शाकल्यः शाकल्प ने । + आह-पूछा । तस्य-उसकी । देवता-देवता यानी कारण । का-कौन है । इति इस पर । उवाच ह-याज्ञवल्क्य ने स्पष्ट उत्तर दिया कि । मृत्युः मृत्यु भावार्थ। जिस पुरुप का शरीर तम है, हृदय रहने की जगह है, मन प्रकाश है, जो सब के आत्मा का परम श्राश्रय है, उस पुरुष को जो जानता है, वह सबका ज्ञाता होता है, क्या आप उस पुरुष को जानते हैं, अगर आप जानते हैं तो अवश्य आप ब्रह्मवित् हैं, और अगर नहीं जानते हैं तो वृथा अहंकार करते हैं, याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि मैं .
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४१४
दिखावट