बृहदारण्यकोपनिपद् स० + आह-कहा कि । चक्षुपि-नेत्र में स्थित है। इति इस पर । + शाकल्यः शाकल्य ने । + श्राह-पूछा कि । चनु:-नेत्र । नु कस्मिन्-किस में । प्रतिष्ठितम्-स्थित है। इति इस पर । याज्ञवल्क्य: याज्ञवल्क्य ने । + श्राह-कहा कि । रूपेषु-रूप में है। हि- क्योंकि । + जना पुरुष । चक्षुपा नेत्र करके । इतिही । रूपाणिरूपों को । पश्यति-देखता है । + पुनः फिर । + शाकल्यः शाकल्य ने । + श्राह-कहा । रूपाणि-रूप । कस्मिन्-किसमें । प्रतिष्ठितानि-स्थित है । नु-यह मेरा प्रश्न है । इति इस पर । याज्ञवल्क्यान्याज्ञ- वल्क्य ने । हस्पष्ट । उवाच कहा कि । हृदये हृदय में। हि-क्योंकि । हृदयेन-हृदय करके ही । रूपाणि-रूप को। + जना पुरुष । जानाति जानता है । हि-कारण यह है कि । हृदये हृदय में । एवम्ही । रूपाणि-रूप । प्रतिष्टितानि- स्थित । भवन्ति रहता है । + शाकल्यः शाकल्य ने । + आह-कहा कि । याज्ञवल्क्य-हे याज्ञवल्क्य ! । एतत्-यह एवम् एव ऐसा ही । अस्ति इति है जैसा तुम कहते हो । भावार्थ । शाकल्य पूछते हैं हे याज्ञवल्क्य ! श्राप पूर्व दिशा में किस देवता को प्रधान मानते हैं ? इस पर याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि मैं सूर्य देवता को पूर्वदिशा का अधिपति मानता हूं, फिर शाकल्य ने पूछा कि वह सूर्य किसमें स्थित है ? यह सुनकर याज्ञवल्क्य ने कहा वह सूर्य नेत्र में स्थित है, इस पर शाकल्य ने पूछा नेत्र किसमें स्थित है, याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया रूप में स्थित है, क्योंकि पुरुष रूप को नेत्र करके ही देखता है। फिर शाकल्य ने पूछा रूप किसमें स्थित है ? याज्ञवल्क्य ने उत्तर
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