बृहदारण्यकोपनिषद् स०
को तैयार हूं, इसमें उन ब्रामणों में से उत्तर देने का किसी को साहस नहीं हुणा ।। २७ !! मन्त्रः २७-१ यथा तो वनस्पतिस्तथैव पुरुषोऽमृपा । तस्य लोमानि पनि स्वगस्योत्पाटिका पहिः ॥ पददः। यथा, वृक्षः, वनस्पतिः, तथा, एव, पुरुषः, अमृपा तस्य, लोमानि, पर्णानि, स्वक, थत्य, उपाटिका, बलिः ।। अन्वय-पदार्थ। + याज्ञवल्क्यःन्यायालय में। * पन-कहा। यथा जैसे । बनस्पतिः =धन का पनि वृनःगृत है। नथैय-नसे की। पुरुपा-सय प्राणियों में पुरुर श्रेष्ट। यनृपा-इसमें ममा नहीं है। तस्य-उस पुरुष फे। लोमानि:रो पनि पत्तों के तुल्य है। च-पीर । त्रस्यम पुगर का । तिम्मे । बहिः याय । त्य-चन है । नथा एवमेदी । उत्पाटिका वृक्ष का स्वचा है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य ने कहा कि, ६ बालगो ! जैसे यन का पति वृक्ष है, वैसेही सत्र प्राणियों का पति पुरुष है. इसमें सन्दह नहीं कि उस पुरुष के रो। वृत्त के पत्तों के तुल्य है और पुरुप का बाहाचर्ग वृक्ष के त्वचा के समान है ॥२७-१॥ मन्त्रः २७-२ स्वच एवास्य रुधिरं भस्यन्दि त्वच उत्पटः । तस्मा- त्तदातृरणात्मेति रसो वृतादिवाहतात् ॥