1 बृहदारण्यकोपनिषद् स० सम्बन्धी धर्म, अन्नदान धर्म, पृथ्वीलोक, सूर्यलोक. जो विद्यमान. हैं, और उन लोकों के अन्दर श्राकाशादि महाभूत, और उन महाभूतों में जो प्राणी आदि सृष्टि स्थित है, हे राजन् ! सब वाणी करके ही जाने जाते हैं, हे सम्राट् ! वाणी ही परमब्रह्म है, जो कोई उपासक इस प्रकार जानते हुये वाणीरूपी शास्त्र का ध्यान करता है, उसको वाक्शास्त्र नहीं त्यागता है, उस उपासक की सब प्राणी रक्षा करते हैं, और वह उपासक अपूर्ववस्तुओं को पाता है, और फिर देवता होकर शरीर त्यागने के बाद देवरूप को प्राप्त होता है, ऐसा सुनकर विदेहपति राजा जनक बोले, हे याज्ञवल्क्य, महाराज ! हाथी के समान एक सांड़ सहित हजार गौओं . को विद्या की दक्षिणा में अर्पण करता हूं, इसके.. उत्तर में याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजन् ! मेरे पिता का उपदेश है कि शिप्य को भली प्रकार बोध कराये . और कृतार्थ किये बिना दक्षिणा न लेना चाहिये ॥ २ ॥ मन्त्रः३ • यदेव ते कश्चिदब्रवीत्तच्छृणवामेत्यत्रवीन्म उदङ्कः शौल्वायनः प्राणो चै ब्रह्मेति यथा मातृमान् पितृमानाचा-; र्यवान्यात्तथा तच्छौल्यायनोऽब्रवीत् प्राणों वै ब्रह्मेत्य- प्राणतोहि किछ स्यादित्यव्रवीत्तु ते तस्यायतनं प्रतिष्ठान मेऽब्रवीदित्येकपाद्वाएतत्सम्राडिति सवै नोहि याज्ञवल्क्य प्राण एवायतनमाकाशः प्रतिष्ठा प्रियमित्येतदुपासीत का प्रियता याज्ञवल्क्य प्राण एव सम्राडिति होवाच माणस्य
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