पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४५६

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४४२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० जनकः, वैदेहः, सः, ह, उवाच, याज्ञवल्क्य, पिता, मे, श्रमन्यत, न, अननुशिष्य, हरेत, इति ॥ अन्वय-पदार्थ । सम्राट् हे राजराजेश्वर जनक! + भवान्-श्राप।+ अनेका- चार्यसेवी अनेक प्राचार्यों के सेवा करनेवाले हुये हैं। + अतः= इसलिये। यत्-झो कुछ । कश्चित् किमी प्राचार्य ने । ते आपके लिये । अब्रवीत्-उपदेश किया है । तत्-उसको । अहम्-मैं । शृण्वाम-सुनना चाहता हूँ । इति-ऐसा । +पृच्छामि-मेरा प्रश्न है। + सम्राट गनक ने। पाह-जवाब दिया कि I + याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य ! । शोल्वायन: शुल्ब के पुत्र । उदङ्काउदङ्क ने । मेन्मुझमे । अत्रवीत्-कहा है कि । वै-निश्चय करके । प्राणः-प्राण । वै-ही। ब्रह्मग्रमा है । इति- इसपर । + याशवल्क्य: याज्ञवल्क्य ने । + श्राहकहा कि । यथा-जैसे । मातृमान् पितृमान आचार्यवान-माता, पिता गुरु करके सुशिक्षित पुरुष ।+ शिष्याय-अपने शिष्य से । यात्-कहे । तथा-तैसेही । शौल्यनःशुल्म के पुत्र उदक ने। तत्-उस ब्रह्म को । अबतीत्-मापसे कहा है कि वैनिस्संदेह । प्राणप्राण । ब्रह्म-ग्रह्म है। हि-क्योंकि । अप्राणत:प्राण- रहित पुरुप से । किम्-क्या लाभ । स्यात्-हो. सका है। + याज्ञवल्क्यः याज्ञवल्क्य ने । + पप्रच्छ-फिर पूना कि । तुम्क्या । तस्य-उस ब्रह्म के । आयतनम्म्याश्रय और प्रतिष्टाम्-प्रतिष्ठा को भी । अब्रवीत्-उदक ने कहा है। +सम्रा-राजा ने 1 + माह-कहा कि । मे=मुझ से । न-नहीं। अब्रवीत् कहा है। इति इसपर । + याज्ञवल्क्या याज्ञवल्क्य। + आह-मोले कि । सम्राट हे जनक !। एतत्-यह प्राणात्मक