४४४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० . देवत्तानों को ही। एति प्राप्त होता है । + एतत्-यह । श्रुत्वाक सुनकर । वैदेहा देह । जनका जनक । ह स्पष्ट: । उवाच: बोले कि ।.+ याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य !.। हस्त्युपभम् सहित एक सांड़ हाथी के समान | सहस्त्रम्-सहस्र गौत्रों को। ददामि-धापको देता है ।+तदान्तय । प्रसिद्ध । सः.. वह । याज्ञवल्क्य: याज्ञवल्क्य । उवाच हन्योले कि । मे- हमारे । पिता पिता । इति-ऐमा । श्रमन्यत-उपदेश कर गये, हैं कि । अननुशिष्य-शिष्य को बोध कराये विना । न हरेत- नहीं धन लेना चाहिये । भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज द्वितीय बार राजा जनक से पूछते हैं, : हे सम्राट् ! जो कुछ आप से किसी ने कहा है उसको मैं सुनना चाहता हूँ, इसका उत्तर जनक महारान देते हैं, हे याज्ञवल्क्य, महाराज! शुल्ब के पुत्र उदक ने मुझसे कहा है कि प्राण ही ब्रह्म है, ऐसा सुन कर याज्ञवल्क्य महाराज ने कहा कि,हे राजन् ! आपसे उदङ्क ऋषि ने वैसेही कहां है जैसे कोई पुरुष माता पिता गुरु करके सुशिक्षित होता हुआ अपने शिष्य के लिये कहता है, निस्संदेह प्राणही ब्रह्म है, क्योंकि प्राणरहित पुरुप से क्या लाभ हो सक्ता है, याज्ञवल्क्य : महाराज ने फिर पूछा कि क्या उदक आचार्य ने श्रापको, प्राण के आयतन और प्रतिष्ठा को बताया है, इस पर राजा ने कहा कि उन्होंने मुझ से नहीं कहा, तब याज्ञवल्क्य महाराज़ बोले हे राजा जनक ! ये जो प्राणात्मक ब्रह्म की. उपासना है, वह केवल एक चरणवाली है, इस पर:- जनक महाराज ने कहा कि हे हमारे पूज्य, आचार्य ! आपही कृपा. I ,
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४५८
दिखावट