. .अध्याय ४ ब्राह्मण १ .४४५ करके ब्रह्म का उपदेश दें, इस पर याज्ञवल्क्य महाराज ने कहा, प्राण ही प्राण का आश्रय है, और प्रतिष्ठा ब्रह्म है, .इस प्राणरूप को प्रिय मान कर इसके गुणों का ध्यान करे, तब जनक महाराज ने पूछा, हे याज्ञवल्क्य, महाराज ! प्रिय क्या है, याज्ञवल्क्य महाराज ने उत्तर दिया प्राणही प्रिय है, क्योंकि प्राण के ही अर्थ पतित आदिकों से ही लोक यज्ञ कराते हैं, और अप्रतिगृह्य पुरुष से दान लेते हैं, और जिस दिशा में चोरादिकों करके मारे जाने का भय होता है उस दिशा में भी सर्कारी काम के लिये प्राण के ही निमित्त लोग जाते हैं इसी कारण हे राजन् ! प्राणही निश्चय करके परम- प्रिय वस्तु है, हे राजा जनक ! इस प्रकार जानता हुआ जो विद्वान् प्राणात्मक ब्रह्म की उपासना करता है उसको प्राण नहीं त्यागता है, यानी पूर्ण आयु-तकं जीता रहता है, और उसकी सब प्राणी रक्षा करते हैं, और वह देवरूप होकर मरने के पीछे देवताओं को ही प्राप्त होता है, यह सुनकर वैदेह राजा जनक बोले, हे याज्ञवल्क्य, महाराज। गौओं को, सहित एक सांड़ हाथी के समान मैं आपको ब्रह्मविद्या की दक्षिणा में देता हूँ, तब वह प्रसिद्ध याज्ञवल्क्य महाराज बोले कि हे राजा जनक ! हमारे पिता का उपदेश है कि शिष्य से बिना बोध कराये हुये धन न लेना चाहिये ॥ ३ ॥ मन्त्र:४ यदेव ते कश्चिदब्रवीत्तच्छृणवामेत्यब्रवीन्मे : वर्कुर्वा- र्णश्चक्षुर्वै ब्रह्मेति यथा मातृमान् पितृमानाचार्यवान् सहन. 5
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४५९
दिखावट