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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४६७

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अध्याय ४ ब्राह्मण १ ४५.३ कि । श्रोत्रम् श्रोत्र । वैही । ब्रह्म-ब्रह्म है । हिक्योंकि । नटरवतःम्न सुननेवाले पुरुष से । किम्-क्या लाभ । स्यात् हो सकता है । इति इस पर । + याज्ञवल्क्य: याज्ञवल्क्य ने।

  • भाई-पूछा कि 1 + राजन्हे जनक !! तु-क्या । ते-तुम से।

तस्य-उस ग्रह के । आयतनम्-धाश्रय को । प्रतिष्ठाम्-और प्रतिष्ठा को। अत्रवीत् भारद्वाज ने कहा है । जिनका जनक ने | + आह-उत्तर दिया ।+याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य ! मे मुझ से । न-नहीं अब्रवीत् कहा है । इति इस पर । +याश- वल्क्यः याज्ञवल्क्य ने । + श्राहकहा । सम्राट् हे जनक ! । एतत् यह प्रम की उपासना। एकपात्-एक चरणवाली है। इति: इस पर!+जनका जनक ने+आह-कहाफियाशवल्क्य-है याज्ञवल्क्य ! |साप्रसिद्ध । + त्वम्-प्राप। ना हमसे । हि- ब्रह्म के प्रायतन और प्रतिष्ठा को उपदेश करें।+ याज्ञवल्क्या याज्ञवल्क्य ने 1+ आह-कहा । श्रोत्रम्-श्रोत्रइन्द्रिय एवम्ही । श्रायतनम्-धाश्रय । आकाश:ब्रह्म । प्रतिष्ठा-प्रतिष्ठा है। एनत्-यह श्रोत्ररूप । ब्रह्मन्ब्रह्म । अनन्तः अनन्त है। इति= ऐसा । मत्वा-मानकर । उपासीत-उपासना करे । + जनक:- राजा जनक ने । + श्राहकहा । याज्ञवल्क्य-हे याज्ञवल्क्य ! अनन्तता-अनन्तता। का क्या है। याज्ञवल्क्य: याज्ञवल्क्य ने । उवाच-उत्तर दिया । सम्राट्-हे राजन् ।। दिशा-दिशा। एवम्ही । अनन्तता-अनन्तता है। तस्मात्-इसीसे । सम्राट् हे राजन् !। याम्-जिस । काम्=किसी । दिशम्-दिशा को। गच्छति-भादमी आता है। अस्या:-उस दिशा के। अन्तम्-अन्त को । न एवम्नहीं । गच्छति-पहुँचता है। हि क्योंकि । दिशा-दिशा। अनन्ता-अनन्त हैं। सम्राट हे अनक ! | दिशा-दिशा । श्रोत्रम् कर्ण हैं । सम्राट् हे राजन् ।।