पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४६९

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अध्याय ४ ब्राह्मण १ ४५५ . क्या लाभ होता है, फिर याज्ञवल्क्य महाराज पूछते हैं कि है जनक ! क्या तुमसे गर्दभाविपीत प्राचार्य ने श्रोत्रात्मक बम की उपासना का श्रायतन और प्रतिष्ठा भी कही है, इसके उत्तर में जनक महाराज कहते हैं कि, हे याज्ञवल्क्य, महा- राज ! उन्होंने मुझसे यह नहीं कहा है. इस पर याज्ञवल्क्य ने कहा यह बल ती उपासना एक चरणवाली है, तब जनक महाराज ने कहा कि श्राप हमारे पूज्य श्राचार्य हैं, श्राप कृपा करके श्रोत्रनस के आयतन और प्रतिष्ठा का उपदेश देवे, तब याज्ञवल्क्य महाराज ने कहा कि श्रोत्र इन्द्रिय का प्रायनन श्रोत्र इन्द्रियही है, और परमात्मा उसका आश्रय है इस स्तोत्र ब्रह्म को अनन्त मान कर उपासना करे, जनक महाराज ने पूछा कि इसकी अनन्तता क्या है, याज्ञवल्क्य. महाराम कहते हैं, हे राजन् ! इसकी अनन्तता दिशा हैं, क्योंकि जो कोई जिस किसी देश को जाता है उस उस देश का नन्त नहीं पाता है, इसलिये दिशायें अनन्त हैं, हे जनक ! दिशा धोत्र है, और श्रोत्र परम ब्रह्म है, ऐसा जो जानता है उस ब्रह्मवत्ता को श्रोत्र नहीं त्यागता है, उस बनवत्ता की सब प्राणी रक्षा करते हैं, और जो विद्वान् इस कई इये प्रकार ब्रह्म की उपासना करता है, वह देवता होकर देवनायों काही बाद मरने के प्राप्त होता है, ऐसा 'सुनकर विदेठपति जनक कहा कि, हे याज्ञवल्क्य, महा- राज ! मैं आपको एक सहस्र गौओं को हाथी के समान सांड सहित देता हूं, इस पर याज्ञवल्क्य महाराज ने कहा कि, हे जनक ! मेरे पिता श्राज्ञा दे गये हैं कि शिष्य को विना बोध कराय दक्षिणा न लेना चाहिय ॥ ५ ॥ . .