४६० बृहदारण्यकोपनिपद् स० दिया कि मुझसे उन्होंने नहीं कहा, इस पर याज्ञवल्क्य ने जनक से कहा कि हे राजन् ! यह ब्रह्म की उपासना एक चरणवाली हैं, पूरी नहीं है, ऐसा सुनकर जनक ने कहा हे प्रभो ! अापही हमको विधिपूर्वक उपदेश करें, याज्ञवल्क्य ने कहा सुनो कहता हूँ, मनही बस का शरीर है, यानी रहने की जगह है, अाकाश अथवा परमात्मा उसका आश्रय है, मनही श्रानन्द है, ऐसा जानवर इस ब्रह्म की उपासना करे, राजा जनक ने फिर पूछा कि है याज्ञवल्क्य आनन्द क्या है, याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया हे राजन् ! मन- ही आनन्द है, क्योंकि मनही की प्रेरणा करके पुरुष सी के पास जाता है, उस ली में ही पिता के सदृश लड़का पैदा होता ह, हे राजन् ! मन ही परम ब्रस है, जो पुरुष इस प्रकार जानता हुया ब्रह्म की उपासना करता है, उसको मन नहीं त्यागता है, उस नामवेत्ता की सब प्राणी रक्षा करते हैं, वह देव होकर देवता को ही प्राप्त होता है, ऐसा सुनकर विदेहयति जनक वे ले हायों के तुल्य एक साँड सहित हजार गौओं को श्रापको दक्षिणा में देता है, इस पर याज्ञ. वल्क्य महाराज ने कहा है राजन् ! मेरे पिता कह गये है कि विना शिप्य को बोध कराये दक्षिणा कभी न लेना चाहिये ॥ ६ ॥ मन्त्रः ७ यदेव ते कश्चिदब्रवीत् तच्छृणवामेत्यनवीन्मे विदग्धः शाकल्यो हृदयं वै ब्रह्मेति यथा मातृमान् पितृमानाचार्य- वान्यात्तथा तच्छाकल्योऽवत्रीद्धृदयं वै ब्रह्मत्यहृदयस्य
पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४७४
दिखावट