पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४७८

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४६४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० हृदयम्-हृदयात्मक ब्रह्म । न नहीं । जहाति त्यागता है। एनम् इस ब्रह्मवेत्ता को। सर्वाणि-पत्र । भूतानि-प्राणी । अभिक्षरन्ति-रक्षा करते हैं। +च और । + साम्बह । देवः- देवता। भूत्वा होकर । देवान्-देवताओं को । अपि ही । एतिप्राप्त होता है । इति इस पर । वैदेहः-विदेहपति । जनका अनक । उवाच-बोले कि । याज्ञवल्क्य हे याज्ञ- वल्क्य !। हस्त्वृषभम्-हाथी के समान एक सांड़ सहित । सहस्रम्-हजार गौत्रों को । ददामि त्वाम् दक्षिणा में आपको देता हूं। सत्रह । याज्ञवल्क्या याज्ञवल्क्य । उवाच-बोले कि । मे हमारे । पिता-पिता । इति=ऐसा । अमन्यत-कह गये हैं कि । शिष्यम्-शिष्य को। अननुशिष्य-बोध कराये विना । + दक्षिणाम् दक्षिणा । न-नहीं । हरेतन्ग्रहण करना चाहिये। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज सातवीं बार राजा जनक से कहते हैं कि, जो कुछ किसी प्राचार्य ने आप से कहा है उसको मैं सुनना चाहता हूं. इस पर राजा जनक ने कहा, शकल के पुत्र विदग्ध ने मुझसे कहा है कि हृदय ही ब्रह्म है, ऐसा सुनकर याज्ञवल्क्य ने कहा उन्होंने ठीक कहा है, जैसे कोई माता, पिता और गुरु करके सुशिक्षित पुरुष अपने प्रिय शिष्य प्रति उपदेश करता है वैसेही उन्होंने आपके प्रति कहा है, निस्सन्देह हृदयही ब्रह्म है, क्योंकि हृदयरहित पुरुष को क्या लाभ हो सक्ता है, फिर याज्ञवल्क्य ने कहा कि हे जनक ! क्या आपसे विदग्ध आचार्य ने उस हृदय के आयतन और प्रतिष्ठा को भी कहा है ? जनक महाराज ने