पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४८२

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४६. बृहदारण्यकोपनिषद् स० महाराज! आपको मेरा नमस्कार होये, मुगको श्राप कृपा करके उपदेश देवें, इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि हे राजन् ! जैसे बहुत दृर मार्ग का चलनेवाला पुरुप रथ या नाय को ग्रहण करता यानी श्राश्रय लेता है उसी प्रकार इन कहे हुये ज्ञान विज्ञान करके श्रापका श्रारमा संयुक्त है, और लोगों करके पूज्य और धनाला होने पर भी वेदों को आपने पढ़ा है, और ऋपि लोगों ने उपनिषदों का ज्ञान आपसे कहा है, आप बताइये इस देश को त्यागते हुये कहां को जाओगे, इस पर राजा जनक ने कहा है पृज्य, याज्ञवल्क्य, महाराज ! जहां मैं जाऊंगा उसको मैं नहीं जानता हूं तब याज्ञवल्क्य महाराज ने कहा उसको में शापस अवश्य कहंगा जहां आप जायेंगे, इसको मुनकर राजा जनक ने कहा. हे भगवन् ! आप उसको अवश्य काई ।।१।। मन्त्रः २ इन्धो ह वै नामैप योऽयं दक्षिगोऽनन्पुरुपस्तं वा एत- मिन्ध सन्तमिन्द्र इत्याचनने परोनेगाव परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यत्तद्विपः। पदच्छेदः । इन्धः, ह, वै, नाम, एपः, यः, अयम् . दक्षिण, प्रक्षन् , पुरुपः, तम् , वा, एतम् , इन्धन , सन्तम् . इन्द्रः, इति, आचक्षते, परोक्षण, एव, परोक्षप्रियाः, इव, हि, देवाः, प्रत्यक्षद्विषः ॥