पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४८६

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४७२ वृहदारण्यकोपनिपद् स० और जो हृदय के भीतर आकाश है सोई दोनों यानी इन्द्र इन्द्राणी के मिलने की जगह है, और जोहृदये के भीतर लाल मांसपिण्ड है वही इन दोनों का अन्न है, और जो हृदय के मध्य में जाल के समान अंनक दिद्र युक्त चादर है यही उन दोनों के प्रोदने का वल है, और जो हृदय से ऊपर नाड़ी गई है वही इन दोनों के गमन का मार्ग है, और आग अनेक नाड़ियों का हाल बतात, असे एक केश सहस्र टुकड़ा किया हुआ अतिसूक्ष्म होता है उसी तरह इम देह की हिता नामवाली अतिसूक्ष्म नाड़ियाँ हृदय के भीतर हैं, इन्हीं नाड़ियों के द्वारा अन्नरस को प्राण सब जगह पहुँचाता है, इसी कारण यह जीवात्मा स्थून दह को अपेक्षा अति शुद्धाहारी प्रतीत होता है ॥ ३ ॥ मन्त्रः ४ तस्य प्राची दिक्पाञ्चः प्राणा दक्षिणा दिग्दतिग्गे प्राणाः प्रतीची दिक्प्रत्यञ्चः प्रागगा उदीची दिगुदञ्चः प्राणाऊ; दिगूर्ध्वाः प्राग्गा अवाची दिगवाञ्चः प्राणाः सर्वा दिशः सर्वे प्रागाः स एप नेति नेत्यात्माऽगृह्यो न हि गृह्यतेऽशीर्थो न हि शीर्यतेऽसजो न हि सज्यनेऽसितो न व्यथते न रिप्यत्यभयं वै जनक प्राप्तोऽसीति होवाच याज्ञवल्क्यः। स होवाच जनको बैदेहोभयं त्वागच्छता- याज्ञवल्क्य यो नो भगवन्नभयं चेदयसे नमस्तेऽस्त्विमे विदेहा अयमहमस्मि ।। इति द्वितीयं प्रामाणम् ॥ २ ॥