। बृहदारण्यकोपनिपद् स० पुरुप को। चन्द्रमाःचन्दमापवत्री। ज्योति:काशवाला। भवति होता है यानी इमको प्रकाश चन्द्रमा में मिलता है इति-क्योंकि । श्रयम् यह पुरुष । चन्द्रमसा एक-चन्द्रमा ही के। ज्योतिपा-प्रकाश करके । श्रास्ते पटना है । पल्ययते- इधर उधर घूमता है। कर्म-कर्म । कुरते-करता है। विपल्यैति- कर्म करके अपने स्थान को नोट माता है । इति इस पर । जनका जनक । श्राह-योले । यामवल्क्य हैं याज्ञवल्य!। एतत्-यह बात । एवम् एक-ऐली ही है यानी टीक है। भावार्थ । जनक महाराज प्रश्न करते हैं कि, हे मुने ! जब सूर्य अस्त हो जाता है, तब यह पुरुर किस के प्रकाश करके अपना व्यवहार करता है, यज्ञवल्क्य महाराज ने उत्तर दिया कि यह पुरुप चन्द्रमा के प्रकाश में प्रकाशवाला होता है, क्योंकि यह जीवात्मा चन्द्रमा केही प्रकाश करके बैठता है, इधर उधर फिरता है. कर्म करता है, और कर्म करके अपने स्थान को लौट आता है, यह सुनकर जनक महा- राज बोले, हे याज्ञवल्क्य ! यह ऐसा ही है जैसा आपने कहा है ॥३॥ .. मन्त्रः ४ अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य चन्द्रमस्यस्तमिते किंज्योतिरेवायं पुरुप इत्यग्निरेवास्य ज्योतिर्भवतीत्य- ग्निनैवाय ज्योतिपाऽऽस्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येती- त्येवमेवैतद्याज्ञवल्क्य ॥
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