अध्याय ४ ब्राह्मण ३ ४७९ + शरीर विषे स्थित है, उसकी प्रकाश कहाँ से मिलता है, यानी किसके प्रकाश करके वह प्रकाशित होता है ? इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे जनक ! यह जीवात्मा सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित होता है, यानी सूर्य के प्रकाश करके यह पुरुष अपना सारा काम करता है, इधर- उधर बैठता है, और फिरता है, और कर्म करके फिर अपने स्थान को वापस आ जाता है। जनक महाराज ने ऐसासुन- कर कहा कि, यह ऐसा ही है जैसा आपने कहा है ॥२॥ मन्त्रः३ अस्तमित आदित्ये याज्ञवल्क्य किंज्योतिरेवायं पुरुप इति चन्द्रमा एवास्य ज्योतिर्भवतीति चन्द्रमसैवार्य ज्योतिपाऽऽस्ते पल्ययते कर्म कुरुते विपल्येतीत्येवमेवैत- द्याज्ञवल्क्य ॥ पदच्छेदः। अस्तमिते, आदित्ये, याज्ञवल्क्य, किंज्योतिः. एव, अयम् , पुरुषः, इति, चन्द्रमाः, एव, अस्य, ज्योतिः, भवति, इति, चन्द्रमसा, एव, श्रयम्, ज्योतिपा, आस्ते, पल्पयते, कर्म, कुरुत, विपल्येति, इति, एवम्, एव, एतत्, याज्ञवल्क्य ॥ अन्वय-पदार्थ । याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य । श्रादित्ये सूर्य के । अस्तमिते- डूबने पर । अयम्-यह । पुरुषः पुरुष । एक निश्चय करके । कियोतिः किस प्रकाशवाला होता है यानी इसको प्रकाश कहाँ से मिलता है। याज्ञवल्क्यान्याज्ञवरक्य बोले । अस्य इस
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