पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/४९९

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अध्याय ४ ब्राह्मण ३ ४८५ पव-निश्चय करके । किंज्योतिः किस प्रकाशवाला होता है यानी किसके प्रकाश करके प्रकाशवाला होता है। इति इस पर। याज्ञवल्क्यान्याज्ञवल्क्य ने । उवाच-कहा कि । अस्य-इस पुरुप का। आत्मा-प्रात्मा । एवम्ही । ज्योति:ज्योतिवाला । भवति-होना है। हिक्योंकि । अयम्-यह पुरुष । श्रात्मना- अपने ही । ज्योतिपा-प्रकाश करके । प्रास्ते बैठता है । पल्ययते इधर उधर फिरना है । कर्म-कर्म । कुरुते करता है। विपल्येति काम करके लौट श्राता है । इति-ऐसा ।+ श्रुत्वा सुन करके । + जनका जनक ने । + उवाच-कहा । + याज्ञ- वल्क्यई याज्ञवल्क्य ! + एतत्-यह ।+ एवम् + एव- ऐसाही है जैसा श्राप कहते हैं । भावार्थ। राजा जनक प्रश्न करते हैं कि, हे मुने ! सूर्य के अस्त होने पर, चन्द्रमा के अस्त होने पर, अग्नि के शान्त होने पर, बाणी के वन्द होने पर यह पुरुष किसके प्रकाश करके प्रकाशवाला होता है ? इसके उत्तर में याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, इस पुरुष का आत्माही ज्योतिवाला है, क्योंकि यह पुरुष अपने ही प्रकाश करके बैठता है, इधर उधर फिरता है, कर्म करता है, और कर्म करके अपने स्थान को लौट आता है, ऐसा सुनकर जनक राजा ने कहा, हे मुने! यह ऐसाही है ॥ ६॥ मन्त्र: ७ कतम आत्मेति योऽयं विज्ञानमयः प्राणेपु हृद्यन्त- ज्योतिः पुरुषः समानः सत्रुभौ लौकावनुसंचरति ध्याय-