पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
४८६ बृहदारण्यकोपनिपद् स०

तीव लेलायतीव स हि स्वप्नो भूत्येमं लोकमतिका- 'मति मृत्यो रूपाणि ॥ पदच्छेदः। कतमः, आत्मा, इति, यः, अयम्, विज्ञानमयः. प्राणेपु. हृदि, अन्तर्योतिः पुरुषः, समान:, सन् , उभी, लोको, अनुसंचरति, ध्यायति, इब, लेलायति, इव, सः, हि; स्वप्नः, 'भूत्वा, इमम् , लोकम् , अतिक्रामति, मृत्योः, रूपाणि ॥ अन्चय-पदार्थ । + जनकः राजा जनक । + पृच्छतियूछने हैं। + याश- वल्क्य हे याज्ञवल्क्य !! कतमः कौनसा। साह । यात्मा श्रात्मा है। याज्ञवल्क्या याज्ञवलाय ने। उवाचकहा । यः जो। अयम्=यह । प्राणेपु-इन्द्रियों चिपे । विज्ञानमयः= 'विज्ञानस्वरूप.है । यःजो । हदिम्युद्धि विप । अन्तज्योतिः अन्तर प्रकाशवाला। पुरुषः पुरुष है। सः हि-त्रही । समानः= वुद्धिरूप । सन् होता हुआ। उभी दोनों । लोक जोकों में। संचरति-फिरता है । ध्यायति इव-धर्म अधर्म का ध्यान करता है। लेलायति इव-यति भमिलापा करता है। सावही। स्वप्नःस्वप्न अवस्था में । मृत्वा होकर । इमम्-इस । लोकम् लोक को । मृत्यो मृत्यु के। रूपाणि-रूप को यानी 'दुःख को । अतिक्रामति-उल्लंघन करता है। भावार्थ । राजा जनक पूछते हैं कि, हे याज्ञवल्क्य, महाराज ! आपने कहा है इस पुरुष का अरमाही ज्यातिवाला है, यानी वह स्वयं ज्योतिःस्वरूप है, पर इस शरीर में इन्द्रिय "