पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५०८

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४६४ वृहदारण्यकोपनिषद् स० पदच्छेदः। तत्, एते, श्लोकाः, भवन्ति, स्वनन, शारीरम्, अभिप्रहत्य, , अमुप्तः, सुप्तान्, अभिचाकशीति, शुक्रम् , श्रादाय, पुन:, इति, स्थानम्, हिरण्मयः. पुरुषः, एवं हमः ।। अन्वय-पदार्थ। तत्-उस पूर्वोक्त विषय में । पने-ये यागबाले । श्लोका:- मन्त्र । प्रमाणा:-प्रमाण । भवन्ति। स्वनन: । स्वप्न के द्वारा । शारीरम्=पायभौतिक शरीर को । अभिप्रहन्य-द्रियों के सहित चेष्टारहित करके । अलुनः वयम् जागता हुमा । सुतान् =अन्तःकरण की वृत्ति के प्राधित मय पदार्थों को। अभिचाकशीति देखता है । च-पौर । पुनः फिर । शुक्रम- सब इन्द्रियों की तेज मात्रा को । श्रादाय-लेकर । स्थानम्- जागरित स्थान को । एनि-माना है।+साम्यही हिरगमयः- प्रकाशमान । पुरुपः मय पुरियों में रहनेवाला है। स एवम्यही एकहंसा-यकेला लोको में गमनागमन करनेवाला है भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं, हे राजा जनक ! यह जीवात्मा स्वप्न के द्वारा स्थूल पाञ्चभौतिक शरीर को और इन्द्रियों को चटारहित करके स्वयं जागता हुआ अन्तःकरण की वृत्ति के सब पदार्थों को देखता है, यानी उसका साक्षी बनता है, इतना स्वप्नअवस्था का वर्णन . करके याज्ञवल्क्य महाराज फिर कहते हैं कि, हे जनक राजा ! यह जीवात्मा इन्द्रियों के तेज को लिये हुये स्वप्नस्थान से जाग्रतस्थान फो पाता है, यही प्रकाशमान होता हुआ सब पुरियों में रहने- वाला है, यही अकेला लोकों में गमनागमन करनेगला है ॥१६॥ 1