अध्याय ४ ब्राह्मण ३ ४६५ मन्त्रः १२ प्राणेन रक्षन्नवरं कुलायं बहिष्कुलायादमृतश्चरित्वा । स ईयतेऽमृतो यत्र काम, हिरएमयः पुरुष एकहछसः ।। पदच्छेदः। प्राणेन, रक्षन्, अवरम्, कुलायम्, बहिः, कुलायात्, अमृतः, चरित्वा, सः, ईयते, अमृतः, यत्र, कामम्, हिरएमयः, पुरुषः, एकहंसः ॥ अन्वय-पदार्थ। प्राणेन-प्राण करके । अवरम्-अशुद्ध । कुलायम् शरीर को। रक्षन्-रक्षा करता हुमा । श्रमृतःस्मरण धर्म से रहित होता हुआ। हिरण्मयः स्वयं ज्योतिःस्वरूप । पुरुषः सब शरीर में रहनेवाला । एकहंसा-अकेला लोकों में गमन करनेवाला जीवात्मा। वहिश्चरित्वा-वाहर विचरता हुधा । अमृतः अमृतरूप होता हुआ । यत्र-जिस जिस विषय में । कामम्- कामना की। ईयते इच्छा करता है। तत्र-उसी उसी में+सः प्राप्त होता है। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! प्राण करके अशुद्ध शरीर की रक्षा करता हुआ, मरणधर्म से रहित होता हुआ, स्त्रयं ज्योतिःस्वरूप, सब शरीरों में रहनेवाला, अकेला जो लोकों में गमन करनेवाला जीवात्मा है वह बाहर बिचरता हुआ और अमृतरूप होता हुआ जिस जिस विषय की कामना करता है उसी उसी को वह प्राप्त होता है ॥१२॥ वह । एति
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