पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५२०

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५०६ बृहदारण्यकोपनिपद् स० पक्षों को संहत्य-फैजाकर । ध्रियते-अपने घासले में जाकर बैठता है । एवम् एव-इसी प्रकार । अयम्=यह । पुरुषा जीवात्मा । एतस्मै-इस । अन्ताय-सुपुप्ति स्थान के लिये । धावति-दौड़ता है । यत्र-जिसमें । सुप्तावह सोया हुआ । कंचन=किसी । कामम्=विषय की । न-नहीं । कामयते इच्छा करता है । + च और । न कंचनम्न किसी स्वप्नम्-स्वम को । पश्यति-देखता है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! जैसे पुरुष स्वप्न अवस्था से जाग्रत् अवस्था में जाता है, या जैसे जाग्रत्अवस्था से स्वप्न अवस्था को जाता है, या जैसे स्वप्न से सुषुप्ति में जाता है, इसके विषय में नीचे दृष्टान्त दिया जाता है, आप सुनें, मैं कहता हूं, हे राजन् ! जैसे आकाश में श्येन ( बाज ) नामक पक्षी अथवा गरुड़ जीविकार्थ या केवल क्रीड़ार्थ उड़ते उड़ते थक जाता है और विश्राम के लिये अपने दोनों पक्षों को पसारे हुये अपने घोंसलें में जाकर बैठ जाता है, उसी प्रकार यह जीवात्मा जाग्रत् और स्वप्न- अवस्था में अनेक कार्य करता हुआ जब विश्राम नहीं पाता है, तब वह इस प्रसिद्ध सुपुतिअवस्था के लिये दौड़ता है, जिसमें पहुँचकर न किसी वस्तु की इच्छा करता है, और न स्वप्न को देखता है, यह अवस्था उसको अतिसुखदायी होती है ॥ १९ ॥ मन्त्र: २० ता वा अस्यैता हिता नाम नाड्यो यथा केशः सह-