बृहदारण्यकोपनिषद् स० पुरुषः, प्राज्ञेन, आत्मना, संपरिष्वक्तः, न, बाह्यम् , किंचन, वेद, न, अन्तरम्, तत्, वा, अस्य, एतत् , आप्तकामम् , आत्मकामम् , अकामम् , रूपम्, शोकान्तरम् ॥ अन्वय-पदार्थ। अस्य-इस सुपुप्त पुरुष का । तत्-वही । एतत्-यह । रूपम् रूप । अतिच्छन्दा:कामरहित । अपहतपाप्मा-पाप पुण्य रहित | अभयम्भयरहित । + अस्ति है । तत्-इस विषय में + दृष्टान्तः दृष्टान्त दिखाया जाता है। यथा जैसे । + स्व- प्रिययानिज प्यारी । स्त्रिया-स्त्री के साथ । संपरिष्वक्तः प्रालिङ्गित हुआ। + पुरुषा-पुरुप । वाह्यम् बाहरी वस्तु को। किंचन कुछ भी। न नहीं । वेद-जानता है। च-और । न- न । अन्तरम्-श्रान्तरिक वस्तु को। + वेद-जानता है । एवम् एव इसी प्रकार । अयम्-यह । पुरुषः सुपुप्त पुरुप । आत्मना- अपने । प्राज्ञन-विज्ञान प्रानन्द से । संपरिष्वक्तः + सन् प्रालिङ्गित होता हुश्रा। न-न । किंचन-किसी। वाह्यम्- बाहरी वस्तु को। वेद-जानता है। च-और । न-न । अन्तरम् प्रान्तरिक वस्तु को । वेद-मानता है। तत् वै-इमी कारण । अस्य इस पुरुष का। एतत् यह । रूपम्-सुपुप्तावस्थारूप । वैनिश्चय करके । प्राप्तकामम्प्राप्तकाम है यानी इस अवस्था में सब कामना प्राप्त हैं । एतत् यह । श्रात्मकामम्-प्रात्मकाम है यानी इसमें केवल ब्रह्म की प्राप्ति की कामना बाकी है। अकामम्- कामरहित है। + च-और । शोकान्तरम् शोकरहित भी है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! इस सुषुप्त पुरुष का यह वक्ष्यमाण रूप कामरहित, पापरहित,
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