पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५२५

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अध्याय ४ ब्राह्मण ३ भयरहित है, इसी विषय में एक दृष्टान्त देते हैं, उसको सुनो, जैसे कोई पुरुष स्वप्रिया भार्या से आलिङ्गित होता हुआ किसी बाहरी वस्तु को नहीं जानता है, इसी के अनुसार सुषुप्ति अवस्था में सुखभोक्ता पुरुष ज्ञान और आनन्द से युक्त होता हुआ न वह बाहरी किसी वस्तु को उस अपनी अवस्था में जानता है, न आन्तरिक किसी वस्तु को जानता है, इसी कारण इस पुरुप का सुषुप्ति अवस्थासम्बन्धी रूप निश्चय करके आप्तकाम है, यानी इसमें सब कामनायें प्राप्त हैं, अकाम भी वह है यानी ब्रह्म की कामना से इतर और उसको कामना नहीं है, और वह शोकान्त भी है, क्योंकि वह शोकरहित है ।। २१ ।। मन्त्र: २२ अत्र पितापिता भवति मातामाता लोका अलोका देवा अदेवा वेदा अवेदाः । अत्र स्तेनोऽस्तेनो भवति भ्रूण- हाऽभ्रूणहा चाण्डालोऽचाएडालः पौल्कसोऽपौल्कसः श्रमणोऽश्रमणस्तापसोऽतापसोऽनन्वागतं पुण्येनानन्वा- गतं पापेन तीर्थों हि तदा सञ्च्छिोकान्हदयस्य भवति ॥ पदच्छेदः। अत्र, पिता, अपिता, भवति, माता, अमाता, लोकाः, अलोकाः, देवाः, अदेवाः, वेदाः, अवेदाः, अत्र, स्तेनः, भ्रूणहा, अभ्रूणहा, अचाण्डालः, अपोल्कसः, श्रमणः, अश्रमणः, तापसा, अतापसः, अनन्वागतम् , पुण्येन, अनन्वागतम्, पापेन, तीर्णः, हि, तदा, सर्वान्, शोकान् , हृदयस्य, भवति । अस्तेनः, चाएडालः, भवति, पोल्कस,