अध्याय ४ ब्राह्मण ३ में भी विद्यमान रहता है, और उसकी वचनशक्ति भी विद्यमान रहती है और जीवात्मा के अविनाशी होने के कारण उसकी वचनशक्ति भी नाशरहित रहती है इसलिये वह बोल सक्ता है, परन्तु जब वचन का कोई विषय वहाँ नहीं है तो किससे वह जीवात्मा बोले ॥ २६ ॥ मन्त्रः २७ यदै तन्न शृणोति शृएवन्य तन्न शृणोनि न हि श्रोतुः श्रुतेविपरिलोपो विद्यतेऽविनाशित्वान तु तद्वितीयमस्ति ततोऽन्यद्विभक्तं यच्छृणुयात् ॥ पदच्छेदः। यत्, वै, तत्, न, शृणोति, शृण्वन् , वै, तत् , न, शृणोति, न, हि, श्रोतुः, श्रुतेः, विपरिलोपः, विद्यते, अविनाशित्वात् , न, तु, तत्, द्वितीयम्, अंस्ति, ततः, अन्यत्, विभक्तम्, यत्, शृणुयात् ।। अन्वय-पदार्थ । + सावह जीवात्मा । तत्-उस सुपुप्तावस्था में। न-नहीं । शृणोति-सुनता है । यत्-जो। इति-ऐसा । + मन्यसे आप मानते हैं । तत्सो | + न-नहीं । + यथार्थः ठीक है। +स:वह जीवात्मा । वै=निःसन्देह । एवन्-सुनता हुआ। नम्नहीं । शृणोति-सुनता है। हिक्योंकि । श्रोतु:-श्रोता जीवात्मा के । श्रुतेः श्रवण शक्ति का । विपरिलोपः-नाश । अविनाशित्वात्-ग्रात्मा के अविनाशी होने के कारण । न नहाँ। विद्यते-होता है। तु-परन्तु । तत्-उस सुपुप्तावस्था में । तता
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