. ५.२२ बृहदारण्यकोपनिषद् स० न, हि, स्प्रष्टुः, स्पृष्टः, विपरिलोपः, विद्यते, अविनाशित्वात् , न, तु, तत् , द्वितीयम् , अस्ति , ततः, अन्यत् , विभक्तम् , यत् , स्पृशेत् ॥ अन्वय-पदार्थ । + सः वह जीवात्मा । तत्-मुपुप्ति अवस्था में । न-नहीं। स्पृशति-स्पर्श करता है। यत्-जो । इति-ऐमा। + मन्यसे- श्राप मानते हैं । तत्-सी । + न-नहीं । * यथार्थम्चीक है। + सःवह जीवात्मा । वैनिश्चय करके। स्पृशन्स्पर्श करता हुश्रा । ननहीं । स्पृशति-पर्श करना है । हिश्योंकि । स्पष्टः स्पर्श करनेवाले जीवारमा की । स्पृष्टःस्पर्शशनि का। विपरिलोपः-नाश । अविनाशिन्त्रात्-धात्मा के शविनाशी होने के कारण । ननहों । विद्यते-होता है। तु-परन्तु । तत्= उस सुपुप्तावस्था में | ततः उमसे । अन्यत्और कोई । विभ- तम्-पृथक् । द्वितीयम्-इमरी वस्तु । न-नहीं है। यन्-जिमको। + सा=बह । स्पृशेत्-स्पर्श करे । भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! अगर आप ऐसा मानते हैं कि जीवात्मा सुषुप्ति अवस्था में नहीं स्पर्श करता है सो ठोक नहीं है, यह जीवात्मा उस अवस्था में भी विद्यमान रहता है, और उसकी स्पर्शशक्ति भी विद्यमान रहती है, और जीयाना के अविनाशी होने के कारण उसकी स्पर्शशक्ति भी नाशरहित है, इसलिये वह स्पर्श कर सक्ता है, परन्तु जब कोई स्पर्शशक्ति का विषय वहां नहीं है तो वह जीवात्मा किसको स्पर्श करे ॥ २६ ॥
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