अध्याय ४ ब्राह्मण ३ वालों और निष्काम कर्मों के करनेवालों के एक आनन्द के बराबर है और इन्हीं के बराबर जन्मदवों का मी आनन्द है, जन्मदेव उसको कहते हैं जो जन्म ही से देवता है, जन्म- देवता का जो सौगुना आनन्द है वह प्रजापतिलोक में एक आनन्द के बराबर है इसी श्रानन्द के वरावर वेद पढ़नेवालों, पापरहित निष्कामियों का भी है यानी इनका आनन्द प्रजा- पति के आनन्द के बराबर है, प्रजापति लोक का सौगुना आनन्द ब्रह्मलोक के एक श्रानन्द के बराबर है और जो श्रोत्रिय, ब्रह्मनिष्ठ, पापरहित, निष्कामी हैं उनका भी आनन्द ब्रह्मानन्द के बरावर ही है ऐसा कहकर याज्ञवल्क्य बोले हे राजा जनक ! यही परम आनन्द है, यही ब्रह्मलोक है, यह सुनकर राजा जनक बोले हे पूज्यपाद भगवन् ! मैं आपको एक सहस्र गौ देता हूं आप कृपा करके इसके आगे मोक्ष के लिये सम्यक् ज्ञान को मेरे प्रति उपदेश करें, यह सुनकर याज्ञवल्क्य महाराज डर गये । क्यों डर गये ? इसका समाधान यों करते हैं, याज्ञवल्क्य महाराज ने विचार किया कि यह राजा परम ज्ञानी है, संपूर्ण धन को मुझे देने को तैयार है, सहस्रों गौ दे चुका है और देता जाता है, क्या सब मुझको देकर वह निर्धनी हो वैठेगा इस बात से डरे अथवा इस बात से डरे कि यह परम- ज्ञानी राजा मुझसे पूछ पूछकर ज्ञानतत्त्वरूपी धन मुझसे लेकर मुझको उस धन से शून्य किये देता है, अव आगे इसको मैं क्या उपदेश करूंगा, पर पहिला अर्थ ठोक मालूम होता है दूसरा अर्थ ठीक नहीं मालूम होता है ॥ ३३ ॥ मन्त्रः ३४ स वा एप एतस्मिन् स्वमान्ते रत्वा चरित्वा दृष्ट्व
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