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पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५४४

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५३० बृहदारण्यकोपनिषद् स० अकामहतः इच्छारहित है। + तस्य-उसका । + श्रानन्दः- श्रानन्द । + ब्रह्मलोकेन-ब्रह्मलोक के समान है । अथ इसके बाद । याज्ञवल्क्या-याज्ञवल्क्य । उवाच-कहते भये कि । सम्राट हे जनक ! । एषाम्यही । परमा श्रेष्ठ । आनन्द:- आनन्द है । एषः यही । ब्रह्मलोक: ब्रह्मलोक है । जनकः= जनक । आहबोले । सःवही । अहम् =मैं। भगवते-आपके लिये । सहस्रम्-हजार गौवों को। ददामि देता हूं । अतः= इसके । ऊर्ध्वम्-धागे । विमोक्षाय-मोक्ष के लिये । एव अवश्य । ब्रहि-उपदेश करें । इति इस पर । अत्र यहां । याज्ञवल्क्या याज्ञवल्क्य । विभयांचकार डर गये। इति हि- ऐसा निश्चय करके । मेधावी बुद्धिमान् । राजा-राजा ने । मा-मुझको । सर्वेभ्यः पब । अन्तेभ्यः=ज्ञानतत्त्व से । उद- रौत्सीत्-शून्य कर दिया है। भावार्थ। याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, हे राजा जनक ! जीवात्मा के आनन्द की सीमा को मैं कहता हूं सुनो, जो पुरुष हृष्ट पुष्ट बलिष्ठ है; धन, धान्य, पशु, पुत्र पौत्र से भरा-पुरा है, पृथ्वी के सब मनुष्यमात्र का अधिपति है, स्वतन्त्र राजा है, मनुष्यसम्बन्धी सब भोग उसको प्राप्त हैं उसका सौगुना जो आनन्द है वह पितरों के एक अानन्द के बराबर है, पितरों का सौगुना आनन्द गन्धर्वलोक के एक आनन्द के बराबर है, जो गन्धर्वलोक में सौगुना आनन्द है वह कर्मदेवों के एक आनन्द के बराबर है, जो कर्म करके देवपदवी को प्राप्त होते हैं वह कर्मदेव कहलाते हैं ऐसे कर्मदेवों का सौगुना जो आनन्द है वह वेद के पढ़नेवालों और वैदिक कर्मों के करने-