५४२ .. वृहदारण्यकोपनिषद् स० सविज्ञान:=पूर्ववत् ज्ञानवाला । भवति-होना है । चौर । + सः वह जीवारमा । सविधानम्-विज्ञानस्थान को । पत्र- हो । अन्वयकामति-जाता है ! तम्-जानेवाले घारमा के । अनु-पीचे । विद्याकर्मणी-विद्या भार कम । + चोर । पूर्वप्रमा-पूर्व का ज्ञान । समन्वारभन-पम्या प्रकार जाते हैं। भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि हे राजा जनक ! पुरुष के मरते समय उसके भाई बन्धु मित्रादि उसके पास बैठकर ऐसा कहते हैं कि इस पुरुप की नेन्द्रिय हृदयात्मा के साथ एक हो रही है इसलिये वह हमको नहीं देखता है, जब उसकी ब्राणशक्ति को नहीं देखने है. तब ऐसा कहते है कि इसकी वाणइन्द्रिय हृदयात्मा के माथ एक हो रही है, इसी कारण वह किसी वस्तु के सूंघन में असमर्थ है, जब स्वाद लेनेवाली इन्द्रिय हृदयात्मा के साथ एक होती है तब वह किसी वस्तु का स्वाद नहीं लेता है, जब वागिन्द्रिय हृदयात्मा के साथ एक हो जाती है तब भेंट हुये लोग कहते हैं कि वह नहीं बोलता है, जब श्रोत्रन्द्रिय हृदयात्मा के साथ एक हो जाती है तब लोग कहते हैं कि यह नहीं सुनता है, जब मन हृदयात्मा के साथ एक हो जाता है, तब लोग कहते हैं कि यह नहीं मनन करता है, जब त्वगिन्द्रिय हृदयात्मा के साथ एक हो जाती है तब लोग ऐसा कहते हैं कि यह नहीं स्पर्श करता है, जब बुद्धि हृदयात्मा के साथ एक हो जाती है तब लोग कहते हैं कि यह नहीं पहिचानता है, और तभी इस जीवात्मा के हृदय का अग्रभाग चमकने लगता है, उसी हृदय के अग्रभाग के प्रकाश करके यह .
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