पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५६०

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- बृहदारण्यकोपनिषद् स० भावार्थ । याज्ञवल्क्य महाराज कहते हैं कि, शास्त्रतत्त्ववित् पुरुषों का विचार है कि कोई जीव ऊर्ध्व को जाता है, कोई मध्य को जाता है, कोई नीचे को जाता है, यह जीव कर्मानुसार फिरा करता है, एक हालत पर कभी नहीं रहता है, इस विषय में यह दृष्टान्त है कि, जैसे सुनार सुवर्ण के एक टुकड़े को लेकर पहिले भूपण की अपेक्षा दूसरे भूपण को अधिक नूतन और अच्छा बनाता है, इसी प्रकार यह विद्यायुक्त जीवात्मा इस अपने जर्जर शरीर को त्याग करके और अज्ञानजन्य शोक को नाश करके दूसरे नवीन उमदा देह को धारण करता है चाहे वह दह पितरलोक के योग्य हो, चाहे वह देह गन्धर्वलोक के योग्य हो, अथवा देवलोक के योग्य हो, अथवा प्रजापतिलोक के योग्य हो, चाहे ब्रह्मलोक के योग्य हो, अथवा अविद्यासंयुक्त जीवात्मा ऊपर कहे हुये के विरुद्ध पशु पक्षियों को योनि के योग्य हो ॥ ४ ॥ स वा अयमात्मा ब्रह्म विज्ञानमयो मनोमयः माण- मयश्चक्षुर्मयः श्रोत्रमयः पृथिवीमय आपोमयो वायुमय आकाशमयस्तेजोमयोऽतेजोमयः काममयोऽकाममयः क्रोधमयोऽक्रोधमयो धर्ममयोऽधर्ममयः सर्वमयस्तधदेतदि- दंपयोऽदोमय इति यथाकारी यथाचारी तथा भवति साधु- कारी साधुर्भवति पापकारी पापो भवति पुण्यः पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेन । अथो खल्वाहुः काममय एवायं