पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५६७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ४ ब्राह्मण ४ याला पुरुप । अमृता-अमर । भवति होजाता है। च-और। अत्रपदाती । प्रम-मक्ष को समश्नुतेप्राप्त होता है । तत्- इसी विषय में । इति=ऐसा । +दृष्टान्तारान्त है कि । यथा- जैसे । अहिनिल्ययनोपपं की त्वचा । मृता-निर्जीवित । प्रत्यस्ता त्यागी हुई । वल्मीकेन्यामी के ऊपर | शयीत पही रहे । एवम् पय-इसी प्रकार । इदम् यह । शरीरम् भानी का शरीर । + मृतः इव मुर्दे की तरह । शेते-पड़ा रहता है। अथ इसी कारण । अयम् ग्रह । प्राणपुरुप । अशरी शरीररहिन । अमृताम्मरण धर्मरहित । + सवत्ति होता है। प्रयम् एवम्यही पुरुष । ब्रह्मयस्वरूप । + चोर । तेजः- भानन्यस्य । पव-दी है। + इति ऐसा ! + श्रुत्वा-सुनकर । जनरामा गनक । चैदेहा-विदेह ने । हस्पष्ट । उचाच कहा कि भगवते सापके लिये। याज्ञवल्क्य हे याज्ञवल्क्य। सबह । श्रहम् में । सहस्रम्-एक हमार गौनी को। ददामि देता हूँ। भावार्थ। इं राजा जनक ! इस पुरुष के हृदय में जो जो कामनायें स्थित है जब वे सब निकल जाती हैं तब वह पुरुष अमर हो जाता है, और वह यहांही ब्रह्मको प्राप्त होजाता है, इस विषय में यह दृष्टान्त है, जैसे सर्प जब अपनी निर्जीवित स्वचा को त्याग देता है, और वह किसी वामी के ऊपर पड़ी रहती है, तब वह सर्प न उसकी रक्षा का यत्न करता है, और न उसे फिर लेना चाहता है, उसी प्रकार ज्ञानी का शरीर सर्प की त्यागी हुई त्वचा की तरह जीते जी भी निर्जीवित पड़ा रहता है, यानी उस शरीर से