पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

अध्याय ४ ब्राह्मण ४ पदच्छेदः। यस्मिन् , पञ्च, पञ्चजनाः, आकाश:, च, प्रतिष्ठितः, तम्, एव, मन्ये, यात्मानम् , विद्वान् , ब्रह्म, अमृतः, अमृतम् ।। अन्वय-पदार्थ । + जनकहे जनक ! । यस्मिन-जिस ब्रह्म में । पञ्च-पांच प्रकार के । पञ्चजनाः मनुष्य यानी गन्धर्व, पितर, देव, असुर, धौर रापस, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूव और निपाद, स्था ज्योति, प्राण, चतु, श्रोत्र, और मन । च-यौर । प्राकाश-पाकाश । प्रतिष्ठितः स्थित हैं । तम् एवम्उसी । अमृतम्-अमृतल्प। ब्रह्म-ग्रम को।आत्मानम्-अपना प्रात्मा। मन्ये-मानता हूँ मैं । + च और 1 + अतः इसी ज्ञान से। + अहम् मैं । विद्वान-विद्वान् । अमृता-अमर । + आसम्= भया । भावार्थ। हे राजा जनक ! जिस में पांच प्रकार के प्राणी यानी मनुष्य, गन्धर्व, असुर, देव, राक्षस, अथवा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वेश्य, शुद्र, और निषाद, अथवा ज्योति, प्राण, चतु, श्रोत्र और मन और श्राकाश स्थित हैं, उसी अमृतरूप ब्रह्म को में अपना श्रात्मा मानता हूं, और मैं उसी ज्ञान से विद्वान् होकर अमर भया हूं॥ १७ ॥ मन्त्र: १८ पारणस्य प्राणमुत चक्षुपश्चक्षुरुत श्रोत्रस्य श्रोत्रं. मनसो ये मनो विदुः । ते निचिक्युर्ब्रह्म पुराणमग्रयम् ।