पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५७८

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५६४ बृहदारण्यकोपनिषद् स० पदच्छेदः। प्राणस्य, प्राणम् , उत, चक्षुषः, चक्षुः, उत, श्रोत्रस्य, श्रोत्रम्, मनसः, ये, मनः, विदुः, ते, निचिक्युः, ब्रह्म, पुराणम् , अप्रयम् ॥ अन्वय-पदार्थ। ये जो लोग | विदुः मानने हैं कि । सःवह जीवात्मा । प्राणम्-प्राण है । चक्षुपः नेत्र का । चक्षु: नेत्र है । उत- और । श्रोत्रस्य-प्रोत्र का । श्रोत्रम्-प्रोन है । उत-घौर । मनसम्मन का । मनः मनन करनेवाला है। तेन्चे । पुराणम् सनातन । अप्रयम्-सयके श्रादि । ब्रह्मबल को । निचिक्युः- निश्चय कर चुके हैं। भावार्थ । जो जानते हैं कि यह अपना जीवात्मा प्राण का प्राण है, नेत्र का नेत्र है, और श्रोत्र का श्रोत्र है, और मन का मनन करनेवाला है, वेहो सनातन सत्र के आदि ब्रह्म को निश्चय कर चुके हैं ॥ १८ ॥ मन्त्रः १६ मनसैवानु द्रष्टव्यं नेह नानास्ति किंचन । मृत्योः स मृत्युमामोति य इह नानेव पश्यति ।। पदच्छेदः । मनसा, एव, अनु, द्रष्टव्यम् , न, इह, नाना, अस्ति, किंचन, मृत्योः, सः, मृत्युम् , प्राप्नोति, यः, इह, नाना, इव, पश्यति ॥