पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५८०

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बृहदारण्यकोपनिपद् स० श्रात्मा ज्यापक है। महान्सब से बड़ा है। ध्रुवः अविनाशी है। +इति-ऐसा।एच-निस्सन्देह । अनु एकधा-एक प्रकार से यानी श्रवण, मनन और निदिध्यासन करके । द्रएव्यम् देखने योग्य है। भावार्थ। हे जनक ! यह जीवात्मा अप्रमेय है, अचल है, गुणों से रहित है, आकाश से भी परे है, यानी अतिसूक्ष्म है, अजन्मा है, व्यापक है, सबसे बड़ा है, अविनाशी है, सोई निश्चय करके श्रवण, ममन, निदिध्यासन द्वारा देखने योग्य है॥२०॥ मन्त्रः २१ तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः । नानु- ध्यायाद् बहूच्छब्दावाचो विग्लापन हि तदिति ।। पदच्छेदः। तम् , एव, धीरः, विज्ञाय, प्रज्ञाम् , कुर्वीत, ब्राह्मणः, न, अनुध्यायात्, बहुन्, शब्दान्, वाचः, विग्लापनम् , हि, तत्, इति ॥ अन्वय-पदार्थ । धीरः बुद्धिमान् । ब्राह्मण:ब्रह्मजिज्ञासु । तम् एव-उस ही 'प्रात्मा को । विज्ञायमानकर । प्रज्ञाम् अपनी बुद्धि को। कुर्वीत्-मोक्षसंपादिका बनाये । वह बहुत ! शब्दान-प्रन्धों को । नन्न । अनुध्यायात्-चिन्तन करे । हि-क्योंकि । तत्- शब्दोचारण । वाचावाणी का । विग्लापनम्-धमकारक मात्र है यानी भ्रम का उत्पन्न करनेवाला है। इति-ऐसा । + आहुः लोग कहते हैं।