अध्याय ४ ब्राह्मण ४ ५६५ अन्वय-पदार्थ । इह इस संसार में । मनसा एक-एकाग्र शुद्ध मन करके हो । अनु-गुरूपदेश के पीछे । + सःवह धारमा । द्रष्टव्यम् देखने योग्य है । + यस्मिन्-उस प्रात्मा बस में । किंचन फुए भी। नाना-नेकाः । नास्ति नहीं है । यःनो पुरुप । इह-इस संसार में । नाना इव-एकत्व को छोड़ कर अनेकत्व फो। पश्यति देखता है । सा-वह । मृत्योः मृत्यु से । मृत्युम्-मृत्यु को। ग्रामोतिप्राप्त होता है। भावार्थ । यह श्रात्मा ब्रह्म हे जनक ! के उपदेश के पीछे एकाप शुद्ध मन करके ही जानने योग्य होता है, उस ब्रह्म में कुछ भी अनेकत्व नहीं है, जो पुरुष इस संसार में एकत्व को छोड़कर अनंकत्व को देखता है वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है ॥ १६ ॥ मन्त्रः २० एकवानु द्रष्टव्यमेतदमयं ध्रुवम् । विरजः पर आकाशादज आत्मा महान्ध्रुवः॥ पदच्छेदः। एकाधा, एक, अनु, द्रष्टव्यम्, एतत् , अप्रमयम्, ध्रुवम् , विरजः, परः, आकाशात् , अजः, आत्मा, महान्, ध्रुवः ॥ अन्वय-पदार्थ । पतत्-यह जीवारमा । श्रप्रमयम्-अप्रमेय है । ध्रुवम् = निश्चल है। विरजा-रजोगुणरहित है। आकाशात्न्याकाश से भी। पर:=परे है, यानी अतिसूक्ष्म है । अज: अजन्मा है।
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