पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५८४

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बृहदारण्यकोपनिपद् स० हैं। च-और । एतम् इसी को। एव-निस्संदेह । विदित्वा जानकर । पुरुषः-पुरुप । मुनिः=मुनि । भवति होता है। + स्वम्-अभीष्ट । लोकम् लोक की यानी ब्रह्मलोक की । इच्छन्तः इच्छा करते हुये । प्रवाजिनः संन्यासी लोग । एतम् एव-इसी आत्मा का । + उद्दिश्य-उपदेश पा करके । तत्-उसी अवस्था में । प्रव्रजन्ति:सर्व को त्याग देते हैं। एतत्-यही । तत्-वह । ह स्म वै=निश्चय करके ।+कारणम् कारण है यानी इंसी संन्यस्त धर्म के लिये ही। पूर्वे-पूर्वकाल के । विद्वांसा विद्वान् । प्रजाम् संतान की। न-नहीं । काम- यन्ते + स्म-कामना करते थे । एवम् विचारवन्त: इस प्रकार विचार करते हुये कि । प्रजया-संतान करके । किम्-क्या । करिष्यामः हम करेंगे । येपाम्-जिन । नः हम लोगों का । सहायकःसहायक । अयम् यह । आत्मा-प्रात्मा है। च% और । इति इसी कारण । ते=वे संन्यासी । ह स्म-निश्चय करके । पुत्रैषणायाः पुत्र की इच्छा से । वित्तपणायाः च 'वष्य की इच्छा से । लोकैपणायाः चलोकों की इच्छा से । व्युत्थाय=विरक्त होकर । भिक्षाचर्यम् भिक्षानिमित्त । चरन्ति- फिरते हैं । या जो । पुत्रैषणा-पुत्र की कामना है। सावही । हि एव-निस्सन्देह । वित्तपणा-धन की कामना है। सा- वही । लोकैषणा-लोक की कामना है । एते-ये । हि-ही।. उभे-दो । एषणे इच्छायें । एव निस्सन्देह । भवतः होती हैं। साबही प्रसिद्ध । एप:यह । आत्मा-प्रात्मा । नेति- नेति । नेति नेति । इति राब्द करके । अगृह्यः अग्राह्य है । हि-क्योंकि । सःबह । न-नहीं। गृह्यते-ग्रहण किया जा सका है। सावह । श्रशीर्यःयहिंसनीय है। हि-क्योंकि ! + सः चहान-नहीं। शीर्यते मारा जा सका है। असङ्गःयह असङ्ग है।