पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५८३

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अध्याय ४ ब्राह्मण ४ ५६६ . इति, अतः, कल्याणम् , अकरवम्, इति, उभे, उ, ह, एच, एषः, एते, तरति, न, एनम् , कृताकृते, तपतः ॥ अन्वय-पदार्थ । सः वैवही । एप: यह । श्रात्माजीवात्मा । महान अति बड़ा है। अजा अजन्मा है । य:जो । अयम् ग्रह पात्रमा । प्राणेषु-चक्षुरादिक इन्द्रियों में से । विज्ञानमय:-चैतन्य रूप स्थित है। चम्पोर -। यःजो । एषाम्यह । अन्त दये- हृदय के भीतर । आकाशः अाकाश है । तस्मिन्-उसमें । शेते-शयन करता है। + सावही । सर्वस्य-प्सवको। वशी अपने वश में रखने हारा है। + सावही । सर्वस्य-सब का । ईशानः शासन करनेवाला है। + स: वही । सर्वस्य-सबका। अधिपतिः अधिपति है । सा=बह । साधुना अच्छे । कर्मणा- कर्म करके । नन । भूयान्-पूज्य । भवति होता है। च- और । नोन । असाधुनाचुरे । कर्मणा-कर्म करके । कनी- यान-अपूज्य । + भवति होता है। + सत्रही । एषः यह श्रात्मा । सर्वेश्वरम्सब का ईश्वर है। + सम्वहा । एषः% यह अात्मा। भूताधिपति:=पवका मालिक है । + सः वही । एषा यह प्रात्मा । भूतपाला-सव का पालक है ! + स:- वही । एषः यह आत्मा सब का पार लगानेवाला। सेतुः सेतु है । + स: वही । एषाम्-इन । लोकानाम्-भूर्भुवौकों की । असंभेदायमरक्षा के लिये । विधरण: उनका धारण करनेवाला है। तम्-उसी । एतम्-इस प्रात्मा को । ब्रह्मणाःब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य । वेदानुवचनेन-वेदाध्ययन करके । यनयज्ञ करके । दानेन-दान करके । तपसा-तप करके । अनाशकेन% अनशन व्रत करके । विचिदिषन्ति मानने की इच्छा करते