पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/५९०

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+ ब्रह्म, ५७६ वृहदारण्यकोपनिषद् स० भावार्थ। हे राजा जनक ! यह आत्मा सर्वोत्कृष्ट, अजन्मा, अन्नभोक्ता, कर्मफल का दाता है, जो इस प्रकार आत्मा को जानता है वह अनेक प्रकार के धन को प्राप्त होता है ॥ २४ ॥ मन्त्रः २५ । स वा एप महानज आत्माजरोऽमरोऽमृतोऽभयो ब्रह्माभयं वै ब्रह्माभयछ हि वै ब्रह्म भवति य एवं वेद ।। इति चतुर्थ ब्राह्मणम् ॥ ४॥ पदच्छेदः। सः, चा, एषः, महान् , अजः, आत्मा, अजरः, अमरः, अमृतः, अभयः, ब्रह्म, अभयम् , वै, अभयम् , हि, वै, ब्रह्म, भवति, यः, एवम् , वेद ॥ अन्वय-पदार्थ। सः वै वही । एपः यह । आत्मा आत्मा । महान्-बड़ा है। श्रमरम्म्मर है । अजः प्रजन्मा है। अजर:-अरारहित है। अमृतः मरणधर्मरहित है। अभयःभयरहित है। अभ- यम् ब्रह्म वैव्यही अभय ब्रह्म है । अभयम् ब्रह्म दिब्यही अभय ब्रह्म है । एवम्-इस प्रकार । यःमो। वेद-जानता है। सान्त्रह । ब्रह्मन्ब्रह्मस्वरूप । भवति होता है। भावार्थ। हेराजाजनक ! यह आत्मा सब से बड़ा है, अमर है, अजन्मा है, जरारहित है, मरणधर्मरहित है, यही अभय है, यही अभय ब्रह्म है, जो पुरुष इस प्रकार जानता है वह ब्रह्मस्वरूप होता है ॥ २५ ॥ इति चतुर्थ ब्राह्मणम् ॥ ४ ॥