६२० बृहदारण्यकोपनिषद् स० स्थित है, वही पुरुष मनुष्य के दहिन नेत्र विषे है, सोई सत्य ब्रह्म है, इस लिये वे दोनों यानी सूर्यस्थ पुरुष और नेत्रस्थ पुरुष एक दूसरे में स्थित हैं, यह सूर्यस्थ पुरुष किरणों करके नेत्र में स्थित है और नेत्रस्थ पुरुष प्राणों करके सूर्यविपे स्थित है, जब ऐसा वह विज्ञानमय पुरुष शरीर त्यागने पर होता है तब वह किरणरहित यानी तापरहित इस सूर्यमण्डल को देखता है, और ये किरणें चक्षुबिप स्थित पुरुष के पास नहीं पाती हैं, यानी उसको नहीं सताती है, अथवा वे किरगों चन्द्रमा के किरणों की तरह सुखदायी होती है ॥२॥ मन्त्र:३ य एप एतस्मिन्मएडले पुरुषस्तस्य भूरिति शिर एक शिर एकमेतदक्षरं भुव इति बाह द्वौ बाहू द्वे पते अक्षरे स्वरिति प्रतिष्ठा प्रतिष्टेटू एते अक्षरे तस्यापनि- पदहरिति हन्ति पाप्मानं जहाति च य एवं वेद । पदच्छेदः। यः, एपः, एतस्मिन् , मण्डले, पुरुषः, तस्य, भूः, इति, शिरः, एकम् , शिरः, एकम् , एतत्, अक्षरम् , भुवः, इति, बाह, द्वौ. बाहू, द्वे, एते, अक्षरे, स्वः, इति, प्रतिष्ठा, द्वे, प्रतिष्ठे,हे, एते, अक्षरे, तस्य, उपनिपद्, अहः, इति, हन्ति, पाप्मानम् , जहाति, च, यः, एवम्, वेद ॥ अन्वय-पदार्थ । पतस्मिन्-इस । मण्डले सूर्यमण्डल में । एपः यद । 4:
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