अध्याय ५ब्राह्मण ५ ६२१ & " जो सत्य यानी व्यापक । पुरुष-पुरुप है। तस्य-उसका । शिर:-शिर । भूः इति-यह पृथ्वी है। + यथा जैसे । एकम्- एक संख्यावाला । शिरः-शिर है। + तथा-तैसेही । एकम् - एक संख्यावाला । एतत् यह भू । अक्षरम्-अक्षर भी है। तस्य-उस सत्यपुरुष का । वाह-वाहु । इति यह । भुवः भुवः हैं । यथा-जैसे । द्वौ-दो संख्यावाला । बाहू-बाहु हैं। + तथा वैसेही । द्वेन्दो संख्यावाला । एते यह " भुवः" अक्षरे अक्षर हैं। च-और । तस्य-उस पुरुष का । प्रतिष्ठा-पैर । इति यह । स्वः स्वः हैं । + यथा-जैसे । द्वेन्दो संख्यावाला । प्रतिष्ठे-पैर हैं। + तथा-तैसेही । वेदो संख्यावाला । एते यह । अक्षरे अक्षर भी हैं। तस्य उस सत्यव्यापक पुरुप का। + अभिधानम्-नाम । उपनिषद्-उपनिषद् है । यः जो । एतत्-इसको । अहः इति-प्रहः करके । एवम्-इस प्रकार । वेद-जानता है । + स: वह । + पाप्मानम्-पाप को । हन्ति- नष्ट करता है। च-और । जहाति त्यागता है। भावार्थ। हे शिष्य ! इस सूर्यमण्डल विषे जो पुरुष स्थित है उसका शिर पृथिवी है, जैसे शिर एक होता है वैसेही ये ॥ "भू" एक अक्षरवाला है, उस सत्यपुरुष का बाहु ये "भुवः" हैं, जैसे दो भुजा होते हैं वैसेही भुवः में दो अक्षर हैं, और उस सत्यपुरुष का पाद "स्वः" हैं जैसे पैर दो संख्यावाला होता है वैसे स्वः "भी दो अक्षरवाला है, उस सत्यव्यापक पुरुप का नाम उपनिषद् है यानी ज्ञान है, जो उपासक उसको अहः करके" यानी प्रकाशस्वरूप करके जानता है, वह पाप को नष्ट और त्याग करता है ॥ ३ ॥
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