पृष्ठ:बृहदारण्यकोपनिषद् सटीक.djvu/६३७

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अध्याय ५ ब्राह्मण ५ 1 एते-यह स्वः यानी सुवः । द्वे-दो। अक्षरे-अक्षरवाला है। तस्य-उस सत्यध्यापक पुरुप का। + नाम नाम । उपनिषद् ज्ञान है । यःो । एतत्-इस को। अहः इति-अहः करके . इस रूप को । एवम्-इस प्रकार । वेद-जानता है। + सः= वह । पाप्मानम्=पाप को। हन्ति-नष्ट करता है। च और जहाति त्याग देता है। भावार्थ। जो पुरुष प्राणीमात्र के दहिने नेत्र में दिखाई देता है, इसका सिर "भू" है क्योंकि जैसे सिर एक होता है वैसेही यह भू अक्षर एक संख्यावाला है, उस व्यापक पुरुष का बाहु भुवः है जैसे बाहु दो संख्यावाला होता है वैसही भुवः भी दो अक्षरवाला है, उसका पाद स्वः (सुवः) है क्योंकि जैसे पाद दो संख्यावाला है वैसही स्वः दो अक्षरवाला है, उस सत्य व्यापक पुरुप का नाम उपनिपद् यानी ज्ञान है, जो उपासक उस व्यापक परमात्मा को अहः * करके यानी प्रकाशस्वरूप करके जानता है, वह पाप को नष्ट और त्याग देता है ॥ ४ ॥ इति पञ्चमं ब्राह्मणम् ॥ ५ ॥

  • अहः दो शब्दों से यानी 'हन्' और 'हा' से निकल सकता है,

'इन्' का अर्थ नाश करना है और 'हा' का अर्थ छोड़ना है, तात्पर्य इसका यह है, कि उपासक पाप को नाश कर देता है, और त्यागता है।