६४२ बृहदारण्यकोपनिपद् स० किन्तु साम का अर्थ संमेलन या सम्बन्ध मे है. क्योंकि सत्र प्राणी प्राण में प्रविष्ट होते हैं, जो सामरूपी प्राण की उपासना इस प्रकार करता है उस उपासक को महत्त्व पदवी देने के लिये प्राणीमात्र उद्यत होते हैं ।। ३ ॥ . क्षत्र' प्राणो चै क्षत्र प्राणो हि वै क्षत्र' त्रायते हैन प्राणः क्षणितोः प्रक्षत्रमत्रमामोति पत्रस्य सायुज्य सलोकतां जयति य एवं वेद ।। इति त्रयोदशं ब्राह्मणाम् ॥ १३ ॥ पदच्छेदः। क्षत्रम् , प्राणः, वै, क्षत्रम्, प्राणः, हि, वै. क्षत्रम् , त्रायते, ह, एनम् , प्राणः, क्षणिताः, प्र, क्षत्रम् , अत्रम् , थानोति, क्षत्रस्य, सायुज्यम् , सलोकताम् , जयात, यः, एवम्, वेद ।। अन्वय-पदार्थ । प्राणः प्राण । वैही । क्षत्रम्-तत्र है । हिक्योंकि प्राण प्राण । वै-ही। एनम् इस देह को । निश्चय करके। क्षरिणतोः अस्त्र के घाव से। त्रायते-बचाता है। अतः इसी कारण । अत्रम्-धारों करके नहीं रक्षा किया हुमा । प्राणप्राण ही क्षत्रम्-तंत्रियत्व जीवन को । प्राप्नोतिप्राप्त होता है यानी जीवन योग्य होता है । इति इस प्रकार । प्राणम्-प्राण हो की क्षत्रम्-तत्र । + ज्ञात्वा मानकर।+उपासीत-उपासना करें। यःजो। एवम्-इस तरह। वेद-जानता है।+ साम्वाह । क्षत्रस्य-तत्र के । सायुज्यम्-सायुज्यता को। + चोर । सलोकताम्सालोक्यता को। जयति प्राप्त होता है। . .
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